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क़्या सोशल मीडिया के लिए सेंसर बोर्ड?सोशल मीडिया के लिए भी एससी-एसटी की तरह कानून लागू करने का सुझाव सराहनीय

 क़्या सोशल मीडिया के लिए सेंसर बोर्ड?सोशल मीडिया के लिए भी एससी-एसटी की तरह  कानून लागू करने का सुझाव सराहनीय 

सोशल मीडिया रेगुलेशन पर सुप्रीम कोर्ट की नई दृष्टि:प्रि- स्क्रीनिंग मैकेनिज्म,न्यूट्रल रेगुलेटर और डिजिटल लोकतंत्र की चुनौती

एससी/एसटी एक्ट जैसे एक कठोर कानून की तरह प्रि- स्क्रीनिंग मैकेनिज्म,न्यूट्रल रेगुलेटर सोशल मीडिया पर नियम कैसे रेगुलेट हो?सेंसर बोर्ड बने? सरकार को ब्रह्मास्त्र चलाने की ज़रूरत है -एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 

गोंदिया - वैश्विक स्तरपर सोशल मीडिया आज दुनियाँ के  लोकतंत्र की सबसे प्रभावशाली, और कई बार सबसे खतरनाक, ताकत के रूप में उभरा है।सूचना के त्वरित प्रसार ने जहां संवाद को नई ऊर्जा दी है, वहीं गलत सूचना, घृणास्पद भाषण, मानहानि साम्प्रदायिक तनाव और संस्थानों के प्रति अविश्वास जैसी समस्याएँ भी अत्यंत तीव्रता से बढ़ी हैं। भारत जैसे व्यापक जनसंख्या वाले लोकतांत्रिक देश में यह चुनौती और अधिक जटिल हो जाती है, क्योंकि विविधता, राजनीतिक सक्रियता और इंटरनेट की तीव्र पहुंच मिलकर सूचना के प्रसार को बेकाबू बना देते हैं।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि ऐसे समय में भारत के सुप्रीम कोर्ट द्वारा सोशल मीडिया कंटेंट को नियंत्रित करने के लिए सरकार को दिए गए नए दिशा- निर्देश न केवल कानूनी बल्कि सामाजिक औरप्रशासनिक दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाते हैं।अदालत ने स्पष्ट रूप से कहा है कि वर्तमान समय में सोशल मीडिया पर निरंतर बढ़ रहे हानिकारक कंटेंट को केवल पोस्ट-फैक्टो यानी घटना होने के बाद हटाने की प्रक्रिया से नियंत्रित नहीं किया जा सकता।यह एक ऐतिहासिक टिप्पणी है, क्योंकि अब तक दुनिया के अधिकांश देशों ने सोशल मीडिया को मुख्य रूप से इसी पोस्ट- रेगुलेशन मॉडल पर चलाया है, जबकि भारत पहली बार प्रि-स्क्रीनिंग मॉडल पर विचार कर रहा है।केंद्र सरकार ने गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट को बताया कि सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर फैल रहे अश्लील और हानिकारक कंटेंट को रोकने के लिए सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय एक नया नियामक ढांचा तैयार कर रहा है। सरकार ने कोर्ट से चार सप्ताह का और समय मांगा है ताकि इन नए दिशानिर्देशों को अंतिम रूप देकर लोगों, विशेषज्ञों और अन्य हितधारकों से सुझाव लिए जा सकें। 

साथियों बात अगर हम इस केस को समझने की करें तो, मीडिया में जानकारी आई कि एक केस में सुप्रीम कोर्ट के अनुसारसोशल मीडिया पर वायरल होने वाला कंटेंट आधुनिक समय का सबसे कठिन सुरक्षा और सामाजिक व्यवस्था से जुड़ा संकट है। डिजिटल प्लेटफॉर्म पर जानकारी कुछ ही सेकंड में लाखों लोगों तक पहुँच जाती है। यह गति कई बार इतने बड़े स्तर पर हानि पहुँचाती है कि सरकार और कानून प्रवर्तन एजेंसियों के पास हस्तक्षेप करने का समय ही नहीं बचता। अदालत ने कहा कि अगर किसी कंटेंट को हटाने से पहले ही वह समाज में तनाव, नफरत या हिंसा का कारण बन जाए,तो ऐसीस्थिति में पोस्ट- फैक्टो कार्रवाई का कोई वास्तविक प्रभाव नहीं रह जाता। ऐसे में केवल सुधारात्मक उपाय नहीं, बल्कि सुरक्षा-आधारित निवारक उपाय की आवश्यकता होती है।इसी संदर्भ में सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को सोशल मीडिया कंटेंट के अपलोड होने से पहले प्रि-स्क्रीनिंग मैकेनिज्म का मसौदा तैयार करने का निर्देश दिया। यह निर्देश केवल प्रशासनिक नहीं,बल्कि डिजिटल युग में नागरिक अधिकारों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और तकनीकी नैतिकता के बीच एक नए संतुलन की खोज का संकेत भी है। 

साथियों बात अगर हम अदालत का यह दृष्टिकोण विशेष रूप से इसलिए महत्वपूर्ण है इसको समझने की करें तो  यह सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को एक समाचार एजेंसी,प्रसारण संस्थान और जनसंचार माध्यम केमिश्रित स्वरूप के रूप में देखता है। पारंपरिक मीडिया पर प्रि- सेंसरशिप या प्रि-अप्रूवल जैसी व्यवस्थाएँ पहले से मौजूद हैं। लेकिन सोशल मीडिया पर यह लागू नहीं रही,क्योंकि इसे व्यक्तिगत अभिव्यक्ति का मंच माना जाता रहा है। किंतु वर्तमान समय में व्यक्तिगत अभिव्यक्तियाँ गण-शक्ति का रूप ले चुकी हैं और उनका प्रभाव कई देशों में चुनाव परिणामों,जनदंगों, दंगों, बैंकिंग संकटों,स्वास्थ्य संबंधी अफवाहों और आतंकवादी गतिविधियों तक में देखा गया है।सुप्रीम कोर्ट का कहना है कि जब सोशल मीडिया कंटेंट समाज की संवेदनशीलता, सुरक्षा और व्यवस्था को सीधे प्रभावित कर रहा है, तब उसके लिए नए प्रकार की नियामक संरचना आवश्यक है। यही कारण है कि कोर्ट ने सरकार को हथियार थमाते हुए,जैसा कि मीडिया ने इसे वर्णित किया,एक कठोर लेकिन जरूरी ढांचे की कल्पना करने को कहा।इसी क्रम में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि सोशल मीडिया रेगुलेशन के लिए कोई सेल्फ- स्टाइल्ड या स्वयंभू संस्था पर्याप्त नहीं है। अभी तक कई सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपने स्वयं के कम्युनिटी गाइडलाइंस और फैक्ट-चेकिंग मैकेनिज्म के आधार पर कंटेंट मॉडरेशन करते रहे हैं। परंतु अदालत के अनुसार ये संस्थाएँ न तो पारदर्शी हैं, न निष्पक्ष, और न ही बाहरी प्रभावों से मुक्त। इनका संचालन निजी कंपनियों द्वारा किया जाता है, जिनके अपने हित, बाज़ार रणनीतियाँ और राजनीतिक दबाव हो सकते हैं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि भारत को एक ऐसी न्यूट्रल,स्वतन्त्र,और संविधान -आधारित रेगुलेटरी बॉडी की आवश्यकता है, जो न उद्योग के हितों के प्रति झुकी हो और न किसी राजनीतिक प्रभाव के तहत काम करे।यह अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बेहद महत्वपूर्ण टिप्पणी है, क्योंकि दुनिया में अभी तक केवल कुछ ही देशों ने सोशल मीडिया के लिए स्वतंत्र रेगुलेटर बनाने की दिशा में कदम उठाया है।

साथियों बात अगर हम सुप्रीम कोर्ट की बेंच, की टिप्पणियों को समझने की करें तो, भारत को सोशल मीडिया रेगुलेशन के लिए ऐसा मॉडल चाहिए जिसमें दंडात्मक प्रावधान भी शामिल हों। इस चर्चा के दौरान सीजेआई ने एससी/एसटी एक्ट का उदाहरण दिया। यह एक कठोर कानून है जिसके तहत किसी भी व्यक्ति के प्रति जाति-आधारित अपमान या हिंसा के मामले में स्पष्ट और सख्त दंड तय है। इसी मॉडल को डिजिटल स्पेस में लागू करने का संकेत अदालत ने देते हुए कहा कि यदि दिव्यांग व्यक्तियों, अनुसूचित जाति या अन्य संवेदनशील समुदायों के प्रति अपमानजनक टिप्पणी सोशल मीडिया पर अपलोड होती है, तो उस पर केवल रिपोर्ट और डिलीट करने की प्रक्रिया नहीं बल्कि तत्काल प्रभाव से दंडात्मक कार्रवाई सुनिश्चित की जानी चाहिए। यह टिप्पणी पहली बार डिजिटल अपराधों को पारंपरिक संवेदनशीलता -आधारित अपराधों की श्रेणी में रखने का संकेत देती है, जो भारत के सामाजिक ढांचे के संदर्भ में अत्यंत क्रांतिकारी विचार है।सुप्रीम कोर्ट ने यह टिप्पणी उस संदर्भ में की जब वह उन यूट्यूब कंटेंट क्रिएटर्स की याचिका पर सुनवाई कर रहा था, जिन्होंने इंडियाज गॉट लेटेंट शो में कथित रूप से दिव्यांग व्यक्तियों पर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी और जिनके विरुद्ध कई राज्यों में एफआई आर दर्ज कराई गई थी। यूट्यूबर्स ने इन एफआईआर को चुनौती देते हुए कहा कि कंटेंट हल्के हास्य के रूप में था और मामला विचाराधीन नहीं होना चाहिए। लेकिन अदालत का दृष्टिकोण इस पर स्पष्ट था कि डिजिटल माध्यम पर अपलोड की गई कोई भी टिप्पणी केवल मनोरंजन या व्यक्तिगत अभिव्यक्ति के दायरे में सीमित नहीं रह जाती, बल्कि उसका समाज शास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक प्रभाव व्यापक होता है। यूट्यूब, इंस्टाग्राम, फेसबुक जैसे प्लेटफॉर्म अब महज मनोरंजन के साधन नहीं, बल्कि जनमत निर्माण के सबसे शक्तिशाली स्रोत बन चुके हैं। इसलिए इन पर मौजूद कंटेंट के लिए जिम्मेदारी भी समान रूप से बढ़ती है।

साथियों बात अगर हम इस मामले को अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में देखें तो सोशल मीडिया रेगुलेशन की यह बहस पूरी दुनियाँ में चल रही है।यूरोप में डिजिटल सर्विसेज एक्ट, अमेरिका में सेक्शन 230 पर चल रही बहस, ऑस्ट्रेलिया में न्यूज मीडिया बार्गेनिंग कोड और कनाडा में ऑनलाइन हार्म्स एक्ट ये सभी इस बात का संकेत हैं कि सोशल मीडिया अब अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता से ज्यादा सुरक्षा, गोपनीयता, गलत सूचना और लोकतांत्रिक स्थिरता का प्रश्न बन चुका है। भारत में सुप्रीम कोर्ट की टिप्पणी इस क्रम में एक महत्वपूर्ण कदम है, क्योंकि यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और समाज की सुरक्षा के बीच नए संतुलन का निर्माण करना चाहती है। कोर्ट के अनुसार सोशल मीडिया की स्वतंत्रता तभी तक स्वीकार्य है जब तक वह किसी व्यक्ति, समुदाय, संस्था या राष्ट्र की गरिमा और सुरक्षा को आघात न पहुँचाए। यदि कोई कंटेंट इस सीमा का अतिक्रमण करता है, तो उसे प्रि-स्क्रीनिंग के माध्यम से रोका जाना चाहिए।प्रि-स्क्रीनिंग मैकेनिज्म कई प्रकार से काम कर सकता है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस  आधारित स्वचालित फ़िल्टरिंग, ह्यूमन मॉडरेशन, स्वतंत्र सरकारी या अर्ध-सरकारी एजेंसी की स्क्रीनिंग,और प्लेटफॉर्म- आधारित कंसोर्टियम मॉडल इन सभी की भूमिका हो सकती है। हालांकि इसके साथ कई चुनौतियाँ भी हैं। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रभाव, यह कि कौन तय करेगा कि क्या आपत्तिजनक है, क्या यह सेंसरशिप की ओर नहीं बढ़ जाएगा, क्या यह तकनीकी रूप से संभव है कि भारत में रोज़ाना अपलोड होने वाले करोड़ों पोस्टों की पहले से स्क्रीनिंग की जाए ये प्रश्न स्वाभाविक हैं।लेकिन अदालत का दृष्टिकोण बिल्कुल स्पष्ट है कि किसी भी सार्वजनिक व्यवस्था वाले लोकतंत्र में स्वतंत्रता और सुरक्षा दोनों समानांतर रूप से सुनिश्चित की जानी चाहिए। केवल स्वतंत्रता पर जोर देना उतना ही गलत है जितना केवल नियंत्रण पर जोर देना। 

अतः अगर हम उपरोक्त पूरे विवरण का अध्ययन कर इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि सोशल मीडिया रेगुलेशन केवल दंडात्मक प्रक्रिया नहीं,बल्कि एक व्यापक सामाजिक-तकनीकी सुधार का हिस्सा है। इसमें शिक्षा, डिजिटल साक्षरता, टेक कंपनियों की जवाबदेही, पारदर्शिता रिपोर्ट, डाटा सुरक्षा और कंटेंट मॉडरेशन की स्पष्ट नीति जैसे तत्व भी महत्वपूर्ण हैं। भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रि-स्क्रीनिंग का मॉडल ऐसा न बने जो लोकतांत्रिक आवाज़ों को दबाए,बल्कि ऐसा मॉडल बने जो हानिकारक कंटेंट को रोकते हुए अधिक सुरक्षित डिजिटल लोकतंत्र स्थापित करे।संक्षेप में कहा जाए तो सुप्रीम कोर्ट का सोशल मीडिया प्रि-स्क्रीनिंग मॉडल का सुझाव भारत में डिजिटल नैतिकता और कानून व्यवस्था के नए युग का संकेत देता है। यह प्रस्ताव न केवल तकनीकी दृष्टि से,बल्कि सामाजिक,राजनीतिक और कानूनी स्तर पर भी एक बड़े परिवर्तन की ओर इशारा करता है। वैश्विक मंच पर यह भारत को उन देशों की श्रेणी में रख सकता है जो डिजिटल दुष्प्रचार और ऑनलाइन अपराधों से निपटने के लिए साहसिक और ठोस कदम उठा रहे हैं। अब यह सरकार और संसद पर निर्भर करता है कि वह सुप्रीम कोर्ट के इस सुझाव को किस प्रकार लागू करती है, और क्या वह एक स्वतंत्र, निष्पक्ष और पारदर्शी रेगुलेटर तैयार कर पाती है जो सोशल मीडिया के भविष्य को सुरक्षित, संतुलित और जिम्मेदार बना सके।


*-संकलनकर्ता लेखक - क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318*

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