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आत्मप्रशंसा,चापलूसी और स्वाभिमान का राजनीतिक समीकरण-भारतीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक गहन विश्लेषण

 आत्मप्रशंसा,चापलूसी और स्वाभिमान का राजनीतिक समीकरण-भारतीय और अंतरराष्ट्रीय राजनीति में एक गहन विश्लेषण

पार्टी नेता अपने शीर्ष नेता को “देश का सबसे बड़ा जननायक”, “विश्वगुरु” या “लोकतंत्र का रक्षक” बताकर जयघोष करते हैं।


“आत्मप्रशंसा का बाजार” राजनीति में इतनी गहराई तक घुस चुका है कि अनेकों नेताओं के वास्तविक गुण दब जाते हैं और केवल कृत्रिम छवि ही जनता के सामने प्रस्तुत होती है- एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र

गोंदिया - वैश्विक स्तरपर मनुष्य का स्वभाव है कि वह अपनी प्रशंसा सुनना पसंद करता है। यह मनोविज्ञान राजनीति में सबसे अधिक दिखाई देता है। सत्ता और पद पर बैठे नेताओं को हर वक्त यह सुख मिलता है कि उनके आसपास लोग उनकी तारीफ़ करें, चाहे वह सच्ची हो या झूठी। यही कमजोरीचाटुकारों के लिए अवसर बन जाती है। भारत हो या अमेरिका,रूस हो या चीन,हर जगह यह दृश्य आम है कि नेता की छवि चमकाने के लिएकार्यकर्ता, सलाहकार या मंत्रीगण उनकी हर बात की तारीफ़ करते हैं।यह“आत्मप्रशंसा का बाजार” राजनीति में इतनी गहराई तक घुस चुका है कि कई बार नेताओं के वास्तविक गुण दब जाते हैं और केवल कृत्रिम छवि ही जनता के सामने प्रस्तुत होती है।मैं एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र यह मानता हूं कि भारत में चुनावी सभाओं में अक्सर देखा जाता है कि पार्टी नेता अपने शीर्ष नेता को“देश का सबसे बड़ा जननायक",“विश्वगुरु” या“लोकतंत्र का रक्षक” बताकर जयघोष करते हैं।लेकिन इन नारों का यथार्थ कितना है, यह अलग सवाल है।इसी तरह अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप ने बार-बार अपने भाषणों में कहा कि उन्होंने “इतिहास का सबसे बड़ाआर्थिक सुधार किया” “सबसे मजबूत सेना बनाई” या “कोविड के समय सबसे अच्छा प्रबंधन किया।” उनके समर्थक नेताओं ने इस आत्मप्रशंसा को और ऊँचा चढ़ाया,भले ही विशेषज्ञ रिपोर्ट इसके सटीक विपरीत हों। 

साथियों बात अगर हम राजनीति में चापलूसी केवल अवसरवाद नहीं बल्कि एक तरह की “कला” बन गई है, इसको समझने की करें तो बड़े नेताओं के आसपास कई ऐसे लोग रहते हैं जो सिर्फ़ इसलिए टिके रहते हैं क्योंकि वे हर वक्त नेता की हाँ में हाँ मिलाते हैं।उन्हें सही-गलत की परवाह नहीं होती,उनका एकमात्र लक्ष्य सत्ता से जुड़कर लाभ उठाना होता है। यही कारण है कि चापलूस अक्सर ऊँचे पदों तक पहुँच जाते हैं जबकि ईमानदार और स्वाभिमानी लोग पीछे छूट जाते हैं।भारतीयराजनीति में इसका उदाहरण कई राज्योंकी विधानसभाओं में देखने को मिलजाता हैँ, जहाँ मंत्री अपने नेता के सामने झुककर “महाराजा” “विकासपुरुष” या“जननायक”जैसे शब्दों का प्रयोग करते हैं। वहीं स्वाभिमानी नेता कई बार पार्टी लाइन के विपरीत जाकर सच बोलने की हिम्मत सीना तानकर करते हैं ,नतीजा यह होता है कि उन्हें हाशिये पर धकेल दिया जाता है जहां उन्हें पूछने वाला कोई नहीं रहता।अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भी यही स्थिति है।उत्तर कोरिया के किम जोंग-उन का शासन इस कला की चरम सीमा है। उनके आसपास कोई भी नेता या अधिकारी उनकी आलोचना की कल्पना तक नहीं कर सकता। जो भी चापलूसी में माहिर है वही टिकता है, बाक़ी गायब हो जाते हैं। इसके विपरीत जर्मनी की एंजेला मर्केल या न्यूज़ीलैंड की जैसिंडा अर्डर्न जैसे नेता स्वाभिमानी थे,उन्होंने कभी अपनी छवि चमकाने के लिए चापलूसों का सहारा नहीं लिया, बल्कि नीतियों और काम से जनता का विश्वास पाया।

साथियों बात अगर हम झूठी प्रशंसा और खुशामद को राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में समझने की करें तो, झूठी प्रशंसा, मक्खनबाजी, बढ़ई दिखावी आवभगत, चने के झाड़ पर चढ़ाना,ये सब राजनीति में “चाटुकारिता की शब्दावली” हैं। इस शब्दकोश का इस्तेमाल हर जगह होता है, बस शैली अलग-अलग होती है।भारत में विधानसभाओं और संसद के भीतर कई बार देखा गया है कि सांसद अपने नेता के पक्ष में लम्बे-लम्बे भाषण देते हैं, जिनका नीतियों से ज़्यादा संबंध नहीं होता बल्कि नेता की व्यक्तित्व पूजा से होता है। यही प्रवृत्ति रूस में व्लादिमीर पुतिन के संदर्भ में भी देखी जा सकती है। वहाँ मीडिया से लेकर संसद तक उनकी इतनी प्रशंसा होती है कि असल आलोचना सामने नहीं आ पाती।झूठी प्रशंसा का परिणाम यह होता है कि नेता वास्तविक चुनौतियों से आँख मूँद लेते हैं उदाहरण के लिए ट्रंप के कार्यकाल में उनके करीबी मंत्रियों ने कई बार उनकी गलत नीतियों को भी सही ठहराया। परिणाम यह हुआ कि अमेरिका ने कोविड प्रबंधन में भारी नुकसान उठाया। इसी तरह पाकिस्तान में इमरान खान को उनके करीबी “नया पाकिस्तान बनाने वाला महानायक” कहते रहे, लेकिन जब सेना का समर्थन हट गया तो वही नेता पल भर में गायब हो गए। 

साथियों बात अगर हम स्वाभिमानी नेताओं का संघर्ष को समझने की करें तो, स्वाभिमानी और आत्मसम्मान से भरे नेता राजनीति में हमेशा कठिनाइयों का सामना करते हैं। वे झूठी प्रशंसा के सहारे नहीं चलते, बल्कि सच्चाई बोलते हैं। ऐसे नेताओं को अक्सर दल से निकाल दिया जाता है, मीडिया में बदनाम किया जाता है या चुनाव में हराने की साजिश रची जाती है।भारत में इसका उदाहरण भी पक्ष विपक्ष में बहुत हैं, जिन्होंने पार्टी नेतृत्व की गलत नीतियों की आलोचना की तो उन्हें हाशिये पर डाल दिया गया हैँ। लेकिन उन्होंने अपनी स्वाभिमानी स्थिति बनाए रखी।अंतरराष्ट्रीय राजनीति में इसका सबसे बड़ा उदाहरण नेल्सन मंडेला हैं।उन्होंने सत्ता पाने के लिए कभीचापलूसी या खुशामद का सहारा नहीं लिया। 27 साल जेल में रहकर भी अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं किया।नतीजा यह हुआ कि वे आज भी विश्व के सबसे सम्मानित नेताओं में गिने जाते हैं। इसके विपरीत जिम्बाब्वे के रॉबर्ट मुगाबे जैसे नेता, जो अपने चापलूसों से घिरे रहे, अंततः तानाशाह कहलाए और सत्ता से बेइज्जती के साथ हटे। 

साथियों बात अगर हम भारतीय राजनीति में चापलूसी बनाम स्वाभिमान समझने की करें तो,भारत की राजनीति में चापलूसी की परंपरा नई नहीं है। मुग़ल दरबार से लेकर ब्रिटिश राज तक और आज़ाद भारत की संसद तक यह संस्कृति जीवित रही है। कांग्रेस के दौर में इंदिरा गांधी के समय “इंदिरा इज़ इंडिया” जैसा नारा गढ़ा गया, जिसने आपातकाल जैसी परिस्थितियों को जन्म दिया। वहीं अटल बिहारी वाजपेयी या डॉ. मनमोहन सिंह जैसे नेता अपेक्षाकृत स्वाभिमानी रहे और व्यक्तिगत प्रशंसा से दूरी बनाए रखी।वर्तमान में भी हम देखते हैं कि भारतीय राजनीति में बड़े नेता अपनी छवि को “मसीहा” के रूप में स्थापित करने के लिए चापलूसों पर निर्भर रहते हैं।सोशल मीडिया पर यह प्रवृत्ति और भी तेज़ हो गई है। ट्रोल आर्मी, आईटी सेल और प्रचार मशीनरी मिलकर झूठी प्रशंसा को जनभावना में बदलने का काम करती है। 

साथियों बात अगर हम अंतरराष्ट्रीय राजनीति में स्वाभिमान और चापलूसी को समझने की करें तो,दुनियाँ की राजनीति में भी यही समीकरण है। चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग को “महान नेता” कहकर पेश किया जाता है और पार्टी कार्यकर्ता उनकी हर बात को अंतिम सत्य मानते हैं। लेकिन अमेरिका में जो बाइडेन जैसे नेता चापलूसी संस्कृति से दूर रहकर कामकाज पर ध्यान देते हैं,भले ही उनकी आलोचना होती रहे।यूरोप की राजनीति अपेक्षाकृत संतुलित है क्योंकि वहाँ मीडिया और नागरिक समाज मजबूत हैं। इसलिए नेताओं को झूठी प्रशंसा पर टिके रहना मुश्किल होता है। फ्रांस के इमैनुएल मैक्रों या ब्रिटेन के कीर स्टार्मर को लगातार आलोचना झेलनी पड़ती है, लेकिन यही लोकतंत्र का वास्तविक चेहरा है। 

अतःअगर हम उपयोग पूरे विवरण का अध्ययन करें इसका विश्लेषण करें तो हम पाएंगे कि, राजनीति में आत्मप्रशंसा और चापलूसी का खेल अनंत है। लेकिन इतिहास गवाह है कि लंबे समय तक वही नेता टिके हैं जिन्होंने स्वाभिमान और सत्य का मार्ग चुना। चापलूस और मक्खनबाज नेता को कुछ समय के लिए सिंहासन पर चमका सकते हैं, लेकिन जब सच्चाई सामने आती है तो वही नेता अकेले रह जाते हैं।भारत और विश्व की राजनीति के मौजूदा दौर में सबसे बड़ी चुनौती यही है कि नेता झूठी प्रशंसा और चापलूसी की सीढ़ी पर चढ़ने के बजाय जनता और सच्चाई पर भरोसा करें। लोकतंत्र तभी मजबूत होगा जब स्वाभिमानी नेता उभरेंगे और चापलूस संस्कृति कमजोर होगी। 


*-संकलनकर्ता लेखक - क़र विशेषज्ञ स्तंभकार साहित्यकार अंतरराष्ट्रीय लेखक चिंतक कवि संगीत माध्यमा सीए(एटीसी) एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानीं गोंदिया महाराष्ट्र 9226229318*

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